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ग़ज़ल
दिया गया है उन्हीं को बहादुरी का निशान
ब-वक़्त-ए-जंग जो चुप-चाप अपने घर में रहे
मंज़ूर-उल-हक़ नाज़िर
ग़ज़ल
भली को भी समझता हूँ बुरी हर दोस्त दुश्मन की
नहीं क़ाबू में मैं रहता मिज़ाज-ए-जंग-जू हो कर
नसीम देहलवी
ग़ज़ल
सईद अहमद अख़्तर
ग़ज़ल
नूह नारवी
ग़ज़ल
तेग़ शमशीर या ख़ंजर की ज़रूरत क्या है
जंग जब ख़ुद से हो लश्कर की ज़रूरत क्या है