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ग़ज़ल
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
ये मैं हूँ या मिरा साया मिरा साया है या मैं हूँ
अजब सी धुँद में लिपटा हुआ है हाफ़िज़ा मेरा
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
मैं सो रही थी उसी दास्ताँ में सदियों से
सुला गया था जहाँ मेरा हाफ़िज़ा मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
ये बस्ती लोग कहते हैं मिरे ख़्वाबों की बस्ती है
गँवा बैठी हूँ में बद-क़िस्मती से हाफ़िज़ा अपना