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ग़ज़ल
बुलंदी पर उन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती
ये वो शाख़ें हैं जिन को अब शजर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
ये ख़्वाब है ख़ुशबू है कि झोंका है कि पल है
ये धुँद है बादल है कि साया है कि तुम हो