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ग़ज़ल
बदन बैठा है कब से कासा-ए-उम्मीद की सूरत
सो दे कर वस्ल की ख़ैरात रुख़्सत क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
ख़ैरात की जन्नत ठुकरा दे है शान यही ख़ुद्दारी की
जन्नत से निकाला था जिस को तू उस आदम का पोता है