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ग़ज़ल
सैकड़ों गुम-शुदा दुनियाएँ दिखा दीं उस ने
आ गया लुत्फ़ उसे लुक़्मा-ए-तर देने में
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
अब तो और भी दुनियाएँ हैं मुंतज़िर-ए-अरबाब-ए-हवस
उन लोगों का क़ौल नहीं है हम को ये दुनिया काफ़ी है
असलम अंसारी
ग़ज़ल
अपने सिवा अपने रिश्ते में और भी कुछ दुनियाएँ थीं
हम ने अपना हाल लिक्खा लेकिन दीगर अहवाल के बाद
ज़फ़र गोरखपुरी
ग़ज़ल
मेरा इक इक लम्हा कर्ब लिए फिरता है सदियों का
इक दुनिया के रस्ते में कितनी दुनियाएँ आती हैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
ये कोमल धरती क्या मेरे भारी दुख का बोझ सहेगी
उधर इधर लाखों दुनियाएँ क्यूँ न कोई और आँगन ढूँडूँ
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
अब भी चारों सम्त हमारे दुनियाएँ हरकत में हैं
हम भी बे-ध्यानी में क्या क्या जिस्म के बाहर भूल गए
रियाज़ लतीफ़
ग़ज़ल
इक ग़ुरूब-ए-बे-निशाँ की सम्त रस्ते पर हूँ मैं
ख़ौफ़ ये दरपेश होंगी कैसी दुनियाएँ वहाँ
शहराम सर्मदी
ग़ज़ल
मुनीर जाफ़री
ग़ज़ल
मुनीर जाफ़री
ग़ज़ल
इसी दुनिया में दुनियाएँ हमारी भी बसी हैं
रविश से सीढ़ियाँ मरमर की पानी में गई हैं