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ग़ज़ल
मिरे उजड़े चमन में भी कभी या-रब बहार आए
ख़िज़ाँ हर बार आई मौसम-ए-गुल एक बार आए
शैख़ हुसैन सालिक
ग़ज़ल
ख़िज़ाँ का कोई वजूद है न चमन में रंग-ए-बहार है
जिसे जानता है तू कारवाँ वो तिरी नज़र का ग़ुबार है
बलदेव राज
ग़ज़ल
चमन पे अपने भी आज रंग-ए-बहार होता तो 'ईद होती
गुलों पे थोड़ा हमें भी गर इख़्तियार होता तो 'ईद होती
सरफ़राज़ बज़्मी
ग़ज़ल
हर एक गोशे में रंग-ए-बहार देखा है
मिरी निगाह ने जल्वा हज़ार देखा है
मोहम्मद तालीबुर्रहमान इनामदार तालिब
ग़ज़ल
बुझी है आतिश-ए-रंग-ए-बहार आहिस्ता आहिस्ता
गिरे हैं शोला-ए-गुल से शरार आहिस्ता आहिस्ता
असलम अंसारी
ग़ज़ल
क़ौस-ए-क़ुज़ह से टूट के हर रंग बह गया
ये ज़ुल्म भी तो आसमाँ चुप-चाप सह गया