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ग़ज़ल
जाने किस रंग से आई है गुलिस्ताँ में बहार
कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सलासिल के सिवा
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
सहरा ज़िंदाँ तौक़ सलासिल आतिश ज़हर और दार ओ रसन
क्या क्या हम ने दे रखे हैं आप के एहसानात के नाम
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ये ज़ुल्फ़ ख़म-ब-ख़म न हो क्या ताब-ए-ग़ैर है
तेरे जुनूँ-ज़दे की सलासिल को थामना
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तअल्लुक़ है वही ता-हाल उन ज़ुल्फ़ों के सौदे से
सलासिल की गिरफ़्तारी जो आगे थी सो अब भी है
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
मिस्ल-ए-सलासिल इस में उक़दे हज़ार-हा हैं
टुक पेच-ओ-ताब से मैं देखीं न ख़ाली ज़ुल्फ़ें
आफ़ताब शाह आलम सानी
ग़ज़ल
यूसुफ़ तो है कनआन में पाबंद-ए-सलासिल
शीशे में उतरती है ज़ुलेख़ा मेरे आगे
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
ग़ज़ल
तुम्हारे गेसू-ए-पेचाँ की जब तारीफ़ लिखता हूँ
क़लम पाबंद हो जाता है मिसरों की सलासिल में
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
कहीं तौक़-ओ-सलासिल हैं कहीं ज़हर-ए-हलाहल है
मुझे हर आज़माइश में इलाही सुर्ख़-रू रखना