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ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
तिरे हाथ से मेरे होंट तक वही इंतिज़ार की प्यास है
मिरे नाम की जो शराब थी कहीं रास्ते में छलक गई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़िय्यत-ए-सहबा के अफ़्साने
शराब-ए-बे-ख़ुदी के मुझ को साग़र याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
मिरे अश्क भी हैं इस में ये शराब उबल न जाए
मिरा जाम छूने वाले तिरा हाथ जल न जाए