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ग़ज़ल
सजाया था जिसे पलकों पे नाज़ों से वही ख़्वाब
'सराहत' मेरी आँखों पर ज़रा सा बार भी था
सराहत अहमद सराहत
ग़ज़ल
पता नहीं हमें देने हैं इम्तिहाँ क्या क्या
ख़राज लेगी मोहब्बत कहाँ कहाँ क्या क्या
सराहत अहमद सराहत
ग़ज़ल
ज़ेहन-ए-ख़्वाबीदा को मसरूफ़-ए-अमल रखना है
क्या ज़रूरी कि इशारों में सराहत भी रहे
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
वक़्त की दीवार पर मैं ने जो देखा था कभी
चलते चलते उस की ऐ 'सारिम' सराहत लिख दी क्या
अअज़ीक़ुरहमान सारिम
ग़ज़ल
संग-ए-दर देख के हैरान थे हम किस का है
दिल ने समझा दिया झुक कर ये हरम किस का है
सराहत अहमद सराहत
ग़ज़ल
तशफ़्फ़ी-बख़्श है ख़ुद बे-क़रारी बे-क़रारों की
मोहब्बत की 'अता है हर मसर्रत ग़म के मारों की