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ग़ज़ल
मोहम्मद भी तिरा जिबरील भी क़ुरआन भी तेरा
मगर ये हर्फ़-ए-शीरीं तर्जुमाँ तेरा है या मेरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिल मुझ से ऐ परी तुझे क़ुरआन की क़सम
देता हूँ तुझ को तख़्त-ए-सुलैमान की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
जाने इस शहर का मे'यार-ए-सदाक़त क्या है
बुत भी हाथों में लिए फिरते हैं क़ुरआन यहाँ
सैफ़ुद्दीन सैफ़
ग़ज़ल
बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुख़्सत क़िरअत-ए-मिस्री
करूँ क्या मेम्बरी जाती है या क़ुरआन जाता है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कर रहा हूँ नज़्म ऐ 'सीमाब' क़ुरआन-ए-मजीद
और ये क्या है अगर ताईद-ए-यज़्दानी नहीं