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ग़ज़ल
क्या क़यामत है कि 'ख़ातिर' कुश्ता-ए-शब थे भी हम
सुब्ह भी आई तो मुजरिम हम ही गर्दाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
ग़ज़ल
आख़िर हम ही मुजरिम ठहरे जाने किन किन जुर्मों के
फ़र्द-ए-अमल थी जाने किस की नाम हमारा लिक्खा था
अहमद सलमान
ग़ज़ल
मैं मुजरिम हूँ मुझे इक़रार है जुर्म-ए-मोहब्बत का
मगर पहले तो ख़त पर ग़ौर कर लो फिर सज़ा देना
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
मैं ने मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़्सोस नहीं
सुदर्शन फ़ाकिर
ग़ज़ल
तुझे दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी