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ग़ज़ल
बहुत दिनों से मैं ज़िंदों में था न मुर्दों में
ग़ज़ल हुई तो मिरे दश्त में ग़ज़ाल आया
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
हिम्मत पस-अज़-फ़ना सबब-ए-ज़िक्र-ए-ख़ैर है
मुर्दों का नाम सुनते हैं हर दास्ताँ में हम
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
गड़े मर्दों ने अक्सर ज़िंदा लोगों की क़यादत की
मिरी राहों में भी हाइल हैं दीवारें क़दामत की
इक़बाल साजिद
ग़ज़ल
चलती फिरती लाशों के होंटों की हँसी पर हैरत किया
मुर्दों पर रक्खा करते हैं फूल हमेशा ताज़े लोग
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
शहर की बेताब गलियों ने उगल डाले हैं लोग
किस ने मेरे शहर में मुर्दों को ज़िंदा कर दिया
सरमद सहबाई
ग़ज़ल
ऐ दुख़्तर-ए-रज़ शायद तू जोश में आई है
मुँह लगती है मर्दों के क्या शोख़ लुगाई है