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ग़ज़ल
ज़ख़्मों पर मरहम लगवाओ लेकिन उस के हाथों से
चारा-साज़ी एक तरफ़ है उस का छूना एक तरफ़
वरुन आनन्द
ग़ज़ल
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जो रक्खे चारागर काफ़ूर दूनी आग लग जाए
कहीं ये ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
तीर आया था जिधर से ये मिरे शहर के लोग
कितने सादा हैं कि मरहम भी वहीं देखते हैं