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ग़ज़ल
हुआ ब-मदरसा-ए-इश्क़ जब से तालिब-ए-इल्म
बहुत है अपने मुताला को एक दम की किताब
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
मैं दश्त हूँ ये मुग़ालता है न शाइ'राना मुबालग़ा है
मिरे बदन पर कहीं क़दम रख के देख नक़्श-ए-क़दम बनेगा
उमैर नजमी
ग़ज़ल
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
मुताला की नुमाइश ही जिन का मक़्सद था
मिला न कुछ भी उन्हें उम्र भर किताबों में