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ग़ज़ल
जहाँ वाले मुक़य्यद हैं अभी तक अहद-ए-तिफ़्ली में
यहाँ अब भी खिलौने रौनक़-ए-बाज़ार होते हैं
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
मुक़य्यद हो के लुत्फ़-ए-हस्ती-ए-आज़ाद भी खोया
वो क्या थी इब्तिदा मेरी ये क्या है इंतिहा मेरी
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ढूँढता क्यों है हिसारों में मुक़य्यद हो कर
मैं वहाँ हूँ जहाँ कोई दर-ओ-दीवार नहीं
अब्दुल्लतीफ़ शौक़
ग़ज़ल
असीरी ही मुक़द्दर है तो कोई क्या करे आख़िर
मुक़य्यद कर के अपने में सज़ा देती हैं दीवारें