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ग़ज़ल
ज़बानों पर उलझते दोस्तों को कौन समझाए
मोहब्बत की ज़बाँ मुम्ताज़ है सारी ज़बानों में
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
तुझे कैसे इल्म न हो सका बड़ी दूर तक ये ख़बर गई
तिरे शहर ही की ये शाएरा तिरे इंतिज़ार में मर गई
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
मिरी ज़िंदगी की किताब का है वरक़ वरक़ यूँ सजा हुआ
सर-ए-इब्तिदा सर-ए-इंतिहा तिरा नाम दिल पे लिखा हुआ
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
तेरे 'मुमताज़' को ग़म मौत का बस इस लिए है
अपने बालों में तुझे ख़ाक रवानी पड़ी थी
मुमताज़ गुर्मानी
ग़ज़ल
फिर 'मुमताज़' किसी की यादें कूजें बन कर लौटेंगी
मौसम आने वाला है फिर ज़ख़्मों की हरियाली का
मुमताज़ गुर्मानी
ग़ज़ल
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है
ग़म-ए-इब्तिदा तो उठा चुका ग़म-ए-इंतिहा की तलाश है
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
फिर हुए आज बहम जाम-ए-गुल ओ नग़्मा-ए-शब
फिर मिरे माज़ी ने 'मुमताज़' बुलाया है मुझे