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ग़ज़ल
न हम होंगे न तुम होगे न दिल होगा मगर फिर भी
हज़ारों मंज़िलें होंगी हज़ारों कारवाँ होंगे
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
हरम की मंज़िलें हों या सनम-ख़ाने की राहें हों
ख़ुदा मिलता नहीं जब तक मक़ाम-ए-दिल नहीं मिलता