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ग़ज़ल
ये तन्हाई का आलम चाँद तारों की ये ख़ामोशी
'हफ़ीज़' अब लुत्फ़ है इक नारा-ए-मस्ताना हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
जुनूँ ही से मगर बिल्कुल दिल-ए-दीवाना ख़ाली है
न मानूँगा असर से ना'रा-ए-मस्ताना ख़ाली है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
'मीर' भी क्या मस्त ताफ़ेह था शराब-ए-इश्क़ का
लब पे आशिक़ के हमेशा नारा-ए-मस्ताना था
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये रंगीं नारा-ए-मस्ताना किस के हैं अरे ज़ाहिद
सदा नाक़ूस की दे दी कहीं गूँजी अज़ाँ हो कर
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
भेजा है सू-ए-मय-कदा जो अब्र ख़ुदा ने
मक़्बूल हुआ ना'रा-ए-मस्ताना किसी का
नवाब उमराव बहादूर दिलेर
ग़ज़ल
बला की ख़ामुशी तारी थी हर-सू तेरी हैबत से
सर-ए-महफ़िल जो गूँजा नारा-ए-मस्ताना मेरा था
अर्श सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
न अब मंसूर बाक़ी है न वो दार-ओ-रसन लेकिन
फ़ज़ा में गूँजता है नारा-ए-मस्ताना बरसों से
इक़बाल सुहैल
ग़ज़ल
न अब मंसूर बाक़ी है न वो दार-ओ-रसन लेकिन
फ़ज़ा में गूँजता है ना'रा-ए-मस्ताना बरसों से
इक़बाल सुहैल
ग़ज़ल
राह-ए-मसदूद पे इक ना'रा-ए-मस्ताना 'ज़िया'
ताकि इस गुम्बद-ए-बे-दर से कोई दर उभरे
सय्यद मुज़फ़्फ़र अहमद ज़िया
ग़ज़ल
हू का आलम है कोई नारा-ए-मस्ताना-ए-हक़
क्या तिरी बज़्म-ए-वफ़ा में कोई इतना भी नहीं