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ग़ज़ल
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
पिघलती शम्अ से मैं ख़ुद को बे-ख़बर कर लूँ
ग़ज़ल को फ़िक्र की हिद्दत से मो'तबर कर लूँ
ख़ावर नक़ीब
ग़ज़ल
बहला रहा हूँ दिल को कि ग़म मो'तबर नहीं
माना शब-ए-हयात मिरी मुख़्तसर नहीं