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ग़ज़ल
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
जौन एलिया
ग़ज़ल
वो शाख़ों से जुदा होते हुए पत्तों पे हँसते थे
बड़े ज़िंदा-नज़र थे जिन को मर जाने की जल्दी थी
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
नोच कर शाख़ों के तन से ख़ुश्क पत्तों का लिबास
ज़र्द मौसम बाँझ-रुत को बे-लिबासी दे गया
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है
नए पत्तों की आहट से भी शाख़ें भीग जाती हैं