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ग़ज़ल
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न ब'अद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहज सहज जब डोलें हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ख़ार-ए-चमन थे शबनम शबनम फूल भी सारे गीले थे
शाख़ से टूट के गिरने वाले पत्ते फिर भी पीले थे
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
इश्क़ की अपनी ही रस्में हैं दोस्त की ख़ातिर हाथों में
जीतने वाले पत्ते भी हों फिर भी हरने लगते हैं