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ग़ज़ल
कारोबार-ए-शौक़ की हासिल हैं वो पसपाइयाँ
जिन पे 'ताबाँ' नाज़ फ़रमाती हैं तक़दीरें बहुत
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
ख़ुदा करे कि सदा कारोबार-ए-शौक़ चले
जो बे-नियाज़ हो मंज़िल से इस सफ़र की तरह