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ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
उलझ पड़ने में काकुल हो बिगड़ने में मुक़द्दर हो
पलटने में ज़माना हो बदलने में हवा तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जहान-ए-रंग-ओ-बू उलझा हुआ है उन के डोरों में
लगी हैं काकुल-ए-तक़दीर सुलझाने तिरी आँखें
साग़र सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हुआ अगर शौक़ आइने से तो रुख़ रहे रास्ती की जानिब
मिसाल-ए-आरिज़ सफ़ाई रखना ब-रंग-ए-काकुल कजी न करना
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
इतनी भी हमें बंदिश-ए-ग़म कब थी गवारा
पर्दे में तिरी काकुल-ए-पुर-ख़म तो नहीं है