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ग़ज़ल
शहर वो साहूकार है जिस को कोस रहा है हर कोई
ये सच भी सब को मालूम है दाना-पानी उस के पास
प्रताप सोमवंशी
ग़ज़ल
'ज़हीन' आसूदगी राह-ए-तलब में है ज़ियाँ-कारी
हज़ारों कोस हैं वो दूर जो इक लम्हा सुसताए
ज़हीन शाह ताजी
ग़ज़ल
ज़िंदा रहने के हैं इम्कानात क्या आसार क्या
कौन सी क़द्रें हैं बाक़ी कौन सी सच्चाइयाँ