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ग़ज़ल
कितनी अजब तक़्सीम 'तबस्सुम' करती है ये दुनिया भी
मेरा हिस्सा ज़हर-ए-हलाहल अमृत धारे उस के थे
कहकशाँ तबस्सुम
ग़ज़ल
कहीं तौक़-ओ-सलासिल हैं कहीं ज़हर-ए-हलाहल है
मुझे हर आज़माइश में इलाही सुर्ख़-रू रखना