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ग़ज़ल
क्या ज़ौक़-ए-इबादत हो उन को जो बस के लबों के शैदा हैं
हलवा-ए-बहिश्ती एक तरफ़ होटल की मिठाई एक तरफ़
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
आ आ के क्यूँ ठहरती हैं मुझ में ही ख़्वाहिशें
होटल हूँ या सराए हूँ बतलाओ क्या हूँ मैं
इमरान बदायूनी
ग़ज़ल
मुझे होटल भी ख़ुश आता है और ठाकुर दुवारा भी
तबर्रुक है मिरे नज़दीक प्रशाद और मटन दोनों
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कार बंगला कार-ख़ाने महफ़िलें होटल शराब
घर के अंदर की फ़ज़ा ना-ख़ुश-गवार अपनी जगह
हुसैन अहमद वासिफ़
ग़ज़ल
इक बड़े होटल की वीराँ चाँदनी पर लेट कर
जाने क्यों अपना तक़द्दुस खो रही थी चाँदनी