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ग़ज़ल
इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे
कभी तो रुख़ से उट्ठेगी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
हाशिम अली ख़ाँ दिलाज़ाक
ग़ज़ल
फिर उस के बा'द तो क़द्रें इन्हीं पे उट्ठेंगी
कुछ और रोज़ ये दीवार-ओ-दर सँभाल के रख
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
नबील अहमद नबील
ग़ज़ल
मुझ से मिलने के ख़्वाहाँ हो मिल कर रोने से हासिल
फिर वो आग भड़क उट्ठेगी अब जो राख में पिन्हाँ है
ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल
अपने ही ख़ूँ से चमक उट्ठेगी तारीख़ 'कलीम'
अहद-ए-हाज़िर के जो माथे पे रक़म देखेंगे
साहबज़ादा मीर बुरहान अली खां कलीम
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता ही नक़ाब उट्ठेगी रू-ए-हुस्न से
वो तो वो है एक दम कोई बशर खुलता नहीं