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ग़ज़ल
अपनी धरती ही के दुख-सुख हम इन शेरों में कहते हैं
हम को हिमाला से क्या मतलब उस की तो ऊँचाई बहुत है
साहिर होशियारपुरी
ग़ज़ल
तेरी रा'नाई-ए-क़ुदरत पे त'अज्जुब है ख़ुदा
इन पहाड़ों में ये ऊँचाई कहाँ से आई
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
इतनी ऊँचाई से धरती की ख़बर क्या जाने
उस को मिट्टी ने ही पाला है शजर क्या जाने
ज़ोहेब फ़ारूक़ी अफ़रंग
ग़ज़ल
पस्ती में जो ले आई मुझे गर्दिश-ए-दौराँ
ऊँचाई पे फिर अपना मुक़द्दर नहीं देखा
मोहम्मद सलाहुद्दीन तस्कीन
ग़ज़ल
पस्ता-क़द कोशाँ हैं मेरा क़द घटाने के लिए
पर मुझे अल्लाह ने बख़्शी है ऊँचाई बहुत