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ग़ज़ल
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मैं ख़ुद-कुशी के जुर्म का करता हूँ ए'तिराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ