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ग़ज़ल
'जौहर' और हाजिब ओ दरबाँ की ख़ुशामद क्या ख़ूब
अर्श ओ कुर्सी पे गुज़र है तिरे दरबारी का
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
आए तो ख़ुशामद से आए बैठे तो मुरव्वत से बैठे
मिलना ही ये क्या जब दिल न मिला तुम और कहीं हम और कहीं
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
बहुत दुश्वार है ख़ुद्दार रह कर ज़िंदगी करना
ख़ुशामद करने वाला सदक़ा-ए-दस्तार क्या देता
उनवान चिश्ती
ग़ज़ल
स्वाभिमान से बढ़ कर कुछ नहीं है जीवन में
फिर ये क्यों ख़ुशामद है क्यों ये जी हुज़ूरी है
डॉ अंजना सिंह सेंगर
ग़ज़ल
कहना अदा को तेग़ ख़ुशामद की बात है
सीने को अपनी उस की समझना सिपर ग़लत