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ग़ज़ल
मैं हूँ वो गुमनाम जब दफ़्तर में नाम आया मिरा
रह गया बस मुंशी-ए-क़ुदरत जगह वाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना
जहाँ दरिया मिले बे-आब मेरा नाम लिख देना
ज़ुबैर रिज़वी
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए