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ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
'जान' फिर कर के किसी रोज़ ये उड़ जाएँगी
बेटियाँ बाप के आँगन में हैं चिड़ियों की तरह
जान काश्मीरी
ग़ज़ल
जान-ए-मुज़्तर को न हो क्यूँ दिल-ए-बेताब से हज़
होता अहबाब को है सोहबत-ए-अहबाब से हज़
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
हुआ है रंग-ए-हिना 'ऐश' ज़ेब-ए-पा उस के
ये जाए-ए-रश्क है रुत्बा हो ये हिना के लिए
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
हज़ार जान से मुश्क-ए-ख़ुतन हो हल्क़ा-ब-गोश
जो सूँघ ले कभी उस ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की बू