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ग़ज़ल
अदू-ए-दीन-ओ-ईमाँ दुश्मन-ए-अम्न-ओ-अमाँ निकले
तिरे पैकाँ बड़े जाबिर बड़े ना-मेहरबाँ निकले
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
अम्न-ओ-अमाँ की ख़ातिर खाई थीं हम ने क़स्में
लेकिन रहा नहीं है ये काम अपने बस में
उद्धव महाजन बिस्मिल
ग़ज़ल
जो हुस्न-ओ-इश्क़ से अम्न-ओ-अमाँ में रहते हैं
कहाँ के लोग हैं वो किस जहाँ में रहते हैं
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
सोने दिया न शोर-ए-क़यामत ने क़ब्र में
समझा था मैं कि जाए ये अम्न-ओ-अमाँ की है
मोहम्मद विलायतुल्लाह
ग़ज़ल
चमन-ए-अम्न-ओ-अमाँ के तुम्हें हो सैर-नसीब
साईं अल्लाह सदा बर-सर-ए-इरशाद रहो
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
उजाड़ी जाएगी कब तक ज़मीं अज़ बहर-ए-आबादी
लड़ी जाएँगी जंगें अज़ पय-ए-अम्न-ओ-अमाँ कब तक