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ग़ज़ल
बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर
लोग भी कतराए क्या क्या मुझ को तन्हा देख कर
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
ठिठका तो था फिर जाने क्या सोच के आगे बढ़ता गया
पा-ए-वफ़ा में यूँ तो चुभे थे तेरी जफ़ा के ख़ार बहुत
वहीद अर्शी
ग़ज़ल
जिसे देख कर मैं ठिठक गई उसे और ग़ौर से देख लूँ
ये चमक रहा है जो आइना कहीं तेरा नक़्श-ए-क़दम न हो
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
शमीम हनफ़ी
ग़ज़ल
रविश-ए-सितम में आना तो क़दम उठाना जल्दी
जो रह-ए-कम में आना तो ठिठक ठिठक के चलना
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
किसी आग में जली तू किसी शाम में ढली मैं
नहीं रूह तो बदन में सो ठिठक के जा रही हूँ
नजमा शाहीन खोसा
ग़ज़ल
जान ममोला जगत पियारा जिन देखा सो ठिठक रहा
चंचल निपट आचीले नैनाँ तन के आगे मृग छूना क्या