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ग़ज़ल
जिस पे दिल आया है वो शीरीं-अदा मिलता नहीं
ज़िंदगी है तल्ख़ जीने का मज़ा मिलता नहीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
सख़्त-जानी से मैं आरी हूँ निहायत ऐ 'तल्ख़'
पड़ गए हैं तिरी शमशीर में दंदाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
इस से पहले हम जुदा हों कुछ भरम बाक़ी रहे
दरमियाँ अब तल्ख़ सी ये दूरियाँ ही ठीक हैं