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ग़ज़ल
मोहब्बत में कभी तस्कीन-ए-दिल पाई नहीं जाती
तबीअ'त ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती
निहाल रिज़वी लखनऊवी
ग़ज़ल
न ठेरी जब कोई तस्कीन-ए-दिल की शक्ल यारों में
तो आ निकले तड़प कर हम तुम्हारे बे-क़रारों में
जलाल लखनवी
ग़ज़ल
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए