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ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता वो मिरी हस्ती का सामाँ हो गए
पहले जाँ फिर जान-ए-जाँ फिर जान-ए-जानाँ हो गए
तस्लीम फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मिरे बस में नहीं है कि परिंदा हो जाऊँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
जहान-ए-दिल में काम आती हैं तदबीरें न ताज़ीरें
यहाँ पैमान-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा ऐसे नहीं होता
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
तुम्हारे हर इशारे पर सर-ए-तस्लीम ख़म लेकिन
गुज़ारिश है कि जज़्बात-ए-मोहब्बत को ज़रा समझो
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
मज़ा जो इज़्तिराब-ए-शौक़ से 'आशिक़ को है हासिल
वो तस्लीम ओ रज़ा ओ बंदगी से हो नहीं सकता
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
हर इशारे पर है फिर भी गर्दन-ए-तस्लीम ख़म
जानता हूँ साफ़ धोके दे रहा है दिल मुझे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
सर-ए-तस्लीम है ख़म इज़्न-ए-उक़ूबत के बग़ैर
हम तो सरकार के मद्दाह हैं ख़िलअत के बग़ैर