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ग़ज़ल
अपने गेसू-ए-रसा से यार रस्सी की तरह
बाँधता है आशिक़-ए-चाह-ए-ज़क़न के हाथ पाँव
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
गया जो तालिब-ए-चाह-ए-ज़कन दिल-ए-बेताब
कुएँ पे तिश्ना-लब आता है आब हो कि न हो
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल
शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
गुनाह क्या है जो दिल से अज़ीज़ रखते हैं
बने हो यूसुफ़-ए-सानी तो चाह करते हैं
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मुद्दत से तेरी चाह-ए-ज़क़न में ग़रीक़ हूँ
बिल्लाह मुझ को यूसुफ़-ए-कनआ'न की क़सम
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हौज़-ए-आईना से फ़व्वारा नज़ाकत का छुटे
रौनक़-अफ़ज़ा जो हो वो चाह-ए-ज़क़न आईने में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
डूब कर चाह-ए-ज़क़न सीना मिरा दिल निकला
क़द्द-ए-आदम से सिवा आब नज़र आता है