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ग़ज़ल
कैसा बिखर के रह गया हुस्न-ए-तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू
तोड़ दिया ख़िज़ाँ ने आज आइना-ए-बहार क्या
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
ग़ज़ल
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू के सेहर से निकले हैं जब
हम को अक्सर दिन में भी तारे नज़र आने लगे
जमील उस्मान
ग़ज़ल
याद आता है कि ख़ुद को नौजवाँ समझा था मैं
इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को गुल्सिताँ समझा था मैं
आग़ा नगीनवी
ग़ज़ल
ख़ुदी से इस तिलिस्म-ए-रंग-ओ-बू को तोड़ सकते हैं
यही तौहीद थी जिस को न तू समझा न मैं समझा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मिरे ख़याल की नुदरत किसी को क्या मा'लूम
तिलिस्म-ए-रंग-ए-तमन्ना है अब हुआ मा'लूम
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल
हमें दा'वा था देखेंगे वो क्यूँकर याद आते हैं
रग-ए-जाँ बन गए हैं अब फ़ुज़ूँ-तर याद आते हैं
ए. डी. अज़हर
ग़ज़ल
ये रंग पाश हुए हैं वो आज ऐ 'नादिर'
है फ़र्श-ए-बज़्म-ए-तरब लाला-ज़ार होली में
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हाथ से उन के टपकते नहीं मय के क़तरे
अश्क-ए-ख़ूँ रोता है ये रंग-ए-हिना मेरे ब'अद
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ये रंग-ओ-बू के तिलिस्मात किस लिए हैं 'सुरूर'
बहार क्या है जुनूँ की जो परवरिश ही नहीं