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ग़ज़ल
नहीं बे-हिजाब वो चाँद सा कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
और कुछ देर न गुज़रे शब-ए-फ़ुर्क़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं