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ग़ज़ल
यक-रंग हूँ आती नहीं ख़ुश मुझ को दो-रंगी
मुनकिर सुख़न-ओ-शेर में ईहाम का हूँ मैं
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
दो-रंगी दैर-ओ-का'बा की नहीं मा'लूम होती है
हक़ीक़त आश्ना मेरी जबीं मा'लूम होती है
अफ़क़र मोहानी
ग़ज़ल
ज़माने की दो-रंगी से उमंगें मिट गईं सारी
कभी था नाज़ हम को भी 'फ़रोग़' अपनी तबीअ'त पर