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ग़ज़ल
वो गुल-बदन का अजब है मिज़ाज-ए-रंगा-रंग
फ़जर कूँ लुत्फ़ तो फिर शाम कूँ सितम का सितम
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
महव थे गुल्ज़ार-ए-रंगा-रंग के नक़्श-ओ-निगार
वहशतें थी दिल के सन्नाटे थे दश्त-ए-शाम था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
हैं सौ तरह के रंग हर इक नक़्श-ए-पा में देख
इंसाँ का हुस्न आइना-ए-इर्तिक़ा में देख
अकबर हैदराबादी
ग़ज़ल
ख़ुद तो रंगा-रंग तस्वीरें बनाईं आप ने
मेरे सर धरते हैं फिर ये आप ही इल्ज़ाम क्या
नाज़िश सह्सहरामी
ग़ज़ल
ख़ाक से पैदा हुए हैं देख रंगा-रंग गुल
है तो ये नाचीज़ लेकिन इस में क्या क्या चीज़ है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
नहीं रखे हैं तू ने हर तरह के फूल अंगिया में
जवाहर ये नज़र आते हैं रंगा-रंग सीने पर