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ग़ज़ल
झुक गया सर अर्ज़-ए-मतलब पर बरा-ए-इख़्तिसार
हम ने चाहा था कि अफ़्साना-दर-अफ़्साना कहें
कँवल एम ए
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बता ज़ालिम मिरे क़ासिद ने तेरा क्या बिगाड़ा था
जो ले कर फाड़ डाला दस्त-ए-बे-तक़्सीर से काग़ज़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' तुम उलझे रहे फ़िक्र ओ फ़लसफ़े में यहाँ
ब-नाम-ए-इश्क़ वहाँ क़ुरअ-ए-हुनर निकला
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
वो बर्क़-ए-नाज़ गुरेज़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
मगर शरीक-ए-रग-ए-जाँ नहीं तो कुछ भी नहीं