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ग़ज़ल
न तुम आए न चैन आया न मौत आई शब-ए-व'अदा
दिल-ए-मुज़्तर था मैं था और थीं बे-ताबियाँ मेरी
फ़य्याज़ हाशमी
ग़ज़ल
मिरी बेताबियाँ भी जुज़्व हैं इक मेरी हस्ती की
ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज अज़ दरिया नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ख़राब सदियों की बे-ख़्वाबियाँ थीं आँखों में
अब इन बे-अंत ख़लाओं में ख़्वाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
अब आया है तो बैठे चारा-गर ख़ामोश बालीं पर
मिरी बे-चैनियाँ देखे मिरी बे-ताबियाँ समझे
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
बिछड़ते दामनों में अपनी कुछ परछाइयाँ रख दो
सुकूत-ए-ज़िंदगी में दिल की कुछ बे-ताबियाँ रख दो