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ग़ज़ल
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हम सभी मेहमान थे वाँ तू ही साहब-ख़ाना था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
हुआ ब-मदरसा-ए-इश्क़ जब से तालिब-ए-इल्म
बहुत है अपने मुताला को एक दम की किताब
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
इश्क़-बाज़ाँ के तईं 'इश्क़ में तेरे ऐ यार
मस्जिद-ओ-मदरसा-ओ-दैर-ओ-हरम चारों एक
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
या ज़िक्र-ए-दोस्त या है ज़बाँ पर हदीस-ए-इश्क़
जूँ अहल-ए-मदरसा नहीं अपना शिआ'र बहस