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ग़ज़ल
मदरसा या दैर था या काबा या बुत-ख़ाना था
हम सभी मेहमान थे वाँ तू ही साहब-ख़ाना था
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
हुआ ब-मदरसा-ए-इश्क़ जब से तालिब-ए-इल्म
बहुत है अपने मुताला को एक दम की किताब
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
अक़्ल के मदरसे से हो इश्क़ के मय-कदा में आ
जाम-ए-फ़ना व बे-ख़ुदी अब तो पिया जो हो सो हो
शाह नियाज़ अहमद बरेलवी
ग़ज़ल
इश्क़-बाज़ाँ के तईं 'इश्क़ में तेरे ऐ यार
मस्जिद-ओ-मदरसा-ओ-दैर-ओ-हरम चारों एक