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ग़ज़ल
चारों जानिब मौसम-ए-गुल है पागल यादें तन्हाई
मन सागर में जाग उठी हैं गुज़री रातें तन्हाई
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
ग़ज़ल
दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब
अगरचे मय-कश तो हम नए थे प लब पे रखते ही पी गए सब
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
न पूछो साग़र-ओ-मय और मय-ख़ानों पे क्या गुज़री
न हो साक़ी तो ये पूछो कि मस्तानों पे क्या गुज़री
नवाब सय्यद हकीम अहमद नक़्बी बदायूनी
ग़ज़ल
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
एक छलकते साग़र में मय भी है और मय-ख़ाना भी
साग़र निज़ामी
ग़ज़ल
जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू
संग-ए-मरमर, ऊदा बादल, सुर्ख़ शफ़क़, हैराँ आहू
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
बिगड़ी बात बनाना मुश्किल बिगड़ी बात बनाए कौन
कुंज-ए-तमन्ना वीराना है आ कर फूल खिलाए कौन
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
सुख की नय्या हाथ आए तो जीवन आशा पार लगे
मन ही शांत न हो तो जीवन दुख-सागर का धारा है