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ग़ज़ल
उफ़ वो आरिज़ जिस के जल्वों पर फ़िदा मेहर-ए-मुबीं
आह वो लब जिन को देते हैं मह ओ अंजुम ख़िराज
अनवर साबरी
ग़ज़ल
हैरान हूँ कि उस के मुक़ाबिल हो आईना
जो पुर-ग़ुरूर खिंचता है माह-ए-मुबीं से दूर
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
असर इक सा है हम दोनों पे वाइज़ उस मुई मय का
वगर्ना तेरी मेरी इक भी तो आदत नहीं मिलती
आज़िम गुरविंदर सिंह कोहली
ग़ज़ल
जो पूछा मैं ''कहाँ थी'' तू हँस के यूँ बोली
''मैं लग रही थी उस अंगिया मुई के सीने में''