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ग़ज़ल
इक शहर-ए-आरज़ू पे भी होना पड़ा ख़जिल
हल-मिम्मज़ीद कहती है रहमत दुआ के ब'अद
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
भरोसा किस क़दर है तुझ को 'अख़्तर' उस की रहमत पर
अगर वो शैख़-साहिब का ख़ुदा निकला तो क्या होगा
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
तिरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है
तिरी रहमत की बारिश से मुरादें भीग जाती हैं
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुर्क़त में
जो बरसा अब्र-ए-रहमत जा-ए-मय शीशों में भर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा