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ग़ज़ल
ये तेज़ धूप ये सहराओं का सफ़र 'रुख़्सार'
यही तपिश है जो कुंदन बना रही है मुझे
रुख़्सार नाज़िमाबादी
ग़ज़ल
आग़ाज़-ए-सब्ज़ा से है जो रुख़्सार पर ग़ुबार
अगले बरस इसे ख़त-ए-गुलज़ार देखना
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
गुल-गूना-ए-तरक़्क़ी-तहज़ीब-ओ-'इल्म से
शुक्र-ए-ख़ुदा कि सुर्ख़ हैं रुख़्सार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
शोला-ए-हुस्न-ए-बुताँ फूँक न दे आलम को
सुर्ख़ हैं फूल से रुख़्सार बड़ी मुश्किल है
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ऐ ज़ुल्फ़ फैल फैल के रुख़्सार को न ढाँक
कर नीम-रोज़ की न शह-ए-मुल्क-ए-शाम हिर्स
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ की क़िस्मत में है रुख़्सार की सैर
शुक्र है बाग़ भी है मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
हुबाब आ कर बने हर सम्त से बुलबुल समुंदर में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हुस्न-ए-रुख़्सार बढ़ा ख़त की नुमूदारी से
ज़ीनत-ए-सफ़हा हुई जदवल-ए-ज़ंगारी से
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
ग़ज़ल
तमाँचा बाग़ के रुख़्सार पर लगा किस का
कि ताएरों का भी रंग-ए-सुख़न शिकस्ता है