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ग़ज़ल
आशिक़ाँ कहते हैं माशूक़ों से बा-इज्ज़-ओ-नियाज़
है अगर मंज़ूर कुछ लेना तो हाज़िर हैं रूपए
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मुझे अपने रूप की धूप दो कि चमक सकें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द
मुझे अपने रंग में रंग दो मिरे सारे रंग उतार दो
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
कहीं आबलों के भँवर बजें कहीं धूप-रूप बदन सजें
कभी दिल को थल का मिज़ाज दे कभी चश्म-ए-तर को चनाब कर
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
रूप को धोका समझो नज़र का या फिर माया-जाल कहो
प्रीत को दिल का रोग समझ लो या जी का जंजाल कहो
सय्यद शकील दस्नवी
ग़ज़ल
उसे पढ़ के तुम न समझ सके कि मिरी किताब के रूप में
कोई क़र्ज़ था कई साल का कई रत-जगों का उधार था
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
अब तो याद आता नहीं कैसा था अपना रंग-रूप
फिर मिरी सूरत दिखा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!